संपूर्ण भारतीय मनीषा के विकास में तीसरी शताब्दी के महान् मनीषी जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य समन्तभद्र स्वामी का बहुमूल्य योगदान है। आचार्य शुभचंद्र तो आपकी कृतियों और आपके अजेय व्यक्त्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि आपको‘समंतभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषण:’ कहकर ‘भारतभूषण’ जैसी गौरवपूर्ण उपाधि तक से विभूषित किये बिना नहीं रह सके।
आपका विस्तृत जीवन परिचय नहीं मिलता। क्योंकि इन्होंने अपनी कृतियों में कहीं कहीं प्रकारान्तर से स्वयं अपने विषय में थोड़े -बहुत ही संकेत दिए हैं। फिर भी परवर्ती साहित्यिक और शिलालेखीय उल्लेखों के आधार पर श्रेष्ठ विद्वानों ने आपके जीवन के विषय में काफी अनुसंधान किया है, तदनुसार आप दक्षिण भारत के चोलराजवंशीय क्षत्रिय महाराजा उरगपुर के सुपुत्र थे। इनके बचपन का नाम शांतिवर्मा था। इसके अलावा इनके मुनिदीक्षा ग्रहण करने के पूर्व के जीवन का अन्य वृत्तान्त उपलब्ध नहीं होता।
पवित्र मुनि वेष में साधनारत जब आप दक्षिण भारत के मणुवकहल्ली नामक स्थान में विहार कर रहे थे, उसी समय आपके शरीर में ‘भस्मकव्याधि’ नामक में बाधाकारी असाथ्य रोग हो गया। इसके बाद भी मुनि दीक्षा के समय धारण किये मूलगुणों आदि व्रतों में शिथिलता का किंचित् विचार तक आपको सहन नहीं था क्योंकि मुक्ति का साक्षात् साधनभूत पवित्र मुनिमुद्रा को धारण कर आगमानुसार श्रमणाचार का पालन करते हुए संयम साधना में आप निरन्तर संलग्न रहे।
इसी दौरान आपने सम्पूर्ण आगमों तथा सम्पूर्ण भारतीय दर्शन की विविध विधाओं के अनेक शास्त्रों का गहन पारायण कर लिया। आपका लक्ष्य अक्षय आगम की ज्ञाननिधि का सार दार्शनिक चिन्तन के माध्यम से यथार्थ सिद्धांतों और सम्यक् परम्पराओं की पुनर्स्थापना और अपूर्व प्रभावना द्वारा फैल रहे मिथ्यात्व तथा पाखंडवादी मान्यताओँ,धारणाओं और परम्पराओं को दूर करने का था।
आपके अन्तःकरण में सम्यग्दर्शन का प्रखर तेज होते हुए भी अचानक अन्तहीन भूख के रूप में आई भस्मक व्याधि नामक इस शारीरिक रोग ने महान् लक्ष्यसिद्धी में बाधा डालना शुरु कर दिया। अतः आपने अपने पूज्य आचार्य गुरुवर्य से सल्लेखना-समाधिमरण ग्रहण करने का अनुरोध किया। किन्तु आपके दीक्षा प्रदाता गुरु भगवन्त इनकी आन्तरिक, प्रतिभा, प्रभावकता और क्षमता से सुपरिचित थे, अतः उन्हें समाधि धारण की आज्ञा नहीं दी, अपितु दिगम्बर मुनिवेष छोड़कर अन्य साधारण साधुवेश में रहकर जिस किसी उपाय से इस पेट की अन्तहीन भूख के रोग-शमन का निर्देश दिया। और कहा कि जब यह रोग पूरी तरह दूर हो जाए, तब पुनः मुनि दीक्षा धारण कर लेना।
वस्तुतः भस्मक-व्याधि की प्रबलता उनकी विवशता थी, अतः उन्होंने यत्र-तत्र विहार करते हुए वैसा ही किया। जैनेतर अन्य परम्परा के साधारण साधु के वेष में कुछ समय रहने का आपका प्रमुख उद्देश्य मात्र व्याधिशमन था। आपने बाह्य रूप में भले ही दूसरा वेष धारण कर लिया किन्तु आपके अन्तः में समीचीन जैनधर्म के प्रति जो दृढ़ आस्था थी, उसके कारण रत्नत्रय का अद्भुत प्रकाशपुंज पूरी जागरूकता के साथ विद्यमान रहा।
महाबाधाकारी भस्मकव्याधि रोग के बीच भी आपने अपनी विलक्षण प्रतिभा का अच्छा उपयोग किया और विभिन्न धर्मों और दर्शनों का निकटता से साक्षात्कार किया और उन परम्पराओं के मूलग्रंथों का स्वयं तथा उनके अधिकारी विद्वानों के साथ गहन अध्ययन किया। और इस तुलनात्मक अध्ययन का उपयोग उन्होंने अपनी कृतियों में किया। उन्होंने अपने द्वारा सृजित साहित्य में विविध रूपों में उन एकान्तिक दार्शनिक मतों का पूर्वपक्ष के माध्यम से बड़ी ही प्रबलता और तार्किक ढंग से खण्डन करते हुए अनेकान्तवाद के द्वारा जैनदर्शन के अखण्ड सिद्धान्तों की दृढ़ता के साथ स्थापना की। उनके द्वारा लिखित उनकी गहन दार्शनिक चिंतन से भरपूर स्तुतिपरक सभी कृतियाँ ही इस सबके लिए स्पष्ट प्रमाण है।
आचार्य समन्तभद्र इस भस्मकव्याधि के शमनार्थ वे विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग साधु-भेषधारी बनकर रहे।आपने सम्पूर्ण भारत के पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सर्वत्र भ्रमण करके जिनधर्म की महिमा स्थापित की थी। वाराणसी के तत्कालीन नरेश शिवकोटि द्वारा आपसे पूछे जाने पर आपने अपना परिचय इस प्रकार दिया –
काञ्च्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुसे पाण्डुपिण्डः, पुण्ड्रोण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट्। वाराणस्यामभूवं शशधरधवलः पाण्डुरङ्गस्तपस्वी, राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननैर्ग्रन्थवादी ॥
अर्थात् मैं कांची में मलिन भेषधारी दिगम्बर रहा, लाम्बुसनगर में भस्म रमाकर शरीर को श्वेत किया, पुण्ड्रोण्ड में जाकर बौद्धभिक्षु बना, दशपुर नगर में मिष्ट भोजन करने वाला सन्न्यासी बना, वाराणसी में श्वेत वस्त्रधारी तपस्वी बना। राजन् ! आपके सामने यह दिगम्बर जैनवादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो, मुझसे शास्त्रार्थ कर ले।आपने जिन देशों,नगरों ललकारते हुए शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की, उन स्थानों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है–
पूर्वं पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुढक्कविषये काञ्चीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्।।
अर्थात् राजन् ! सबसे पहले मैंने पाटलिपुत्र नगर में शास्त्रार्थ के लिए भेरी बजाई, फिर मालवा, सिन्धु, ढक्क, काञ्ची, विदिशा आदि स्थानों में जाकर भेरी ताडित की। अब बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से परिपूर्ण इस करहाटक नगर में आया हूँ। मैं तो शास्त्रार्थ की इच्छा रखता हुआ सिंह के समान घूमता-फिरता हूँ।
इनके अन्दर रत्नत्रय धर्म के प्रति अखण्ड और अगाध श्रद्धा का जो तेज विद्यमान था, उसी के उत्कृष्ट प्रताप से इस महाव्याधि रूपी महाबाधा को अन्ततः काशी में आकर उन्होंने किस तरह दूर किया ? इस घटना से प्रायः सभी सुपरिचित ही हैं। भस्मकव्याधि शमन के बाद अपने दीक्षा प्रदाता गुरु आचार्यश्री की आज्ञा से प्रायश्चित्तादि पूर्वक उन्होंने पुनः दिगम्बर मुनि-मुद्रा धारण कर संयम एवं साहित्य साधना में अपने को समर्पित कर दिया।
आचार्य समन्तभद्र के वाद-कौशल अर्थात् शास्त्रार्थ करने की अद्भुत क्षमता रुप धाक उस समय सम्पूर्ण देश में थी। उनके असाधारण व्यक्तित्व की प्रशंसा परवर्ती आचार्यों में सर्वश्री अकलंकदेव, विद्यानन्द स्वामी, जिनसेन, वादिराज, वादीभसिंहसूरि, वसुनन्दी आदि आचार्यों ने अपने अपने शास्त्रों में मुक्तकण्ठ से की है तथा आपको भव्यैकलोकनयन, सुतर्कशास्त्रामृत, सारसागर, वरगुणालय, महाकवीश्वर, सम्यग्ज्ञानमूर्ति आदि अनेक महनीय विशेष उपाधियों से अलंकृत किया है।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने जहाँ अपने समय के अनेक दार्शनिक एकान्तवादों की मीमांसा और समन्वय कर उन्हें यथार्थ स्थिति का बोध कराया, वहीं अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगी नय,और प्रमाण आदि अनेक सिद्धान्तों के विकास हेतु अपने मौलिक चिन्तन द्वारा अपने द्वारा रचित साहित्य में अनेक नई उद्भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया।
आचार्य समंतभद्र भारतीय ज्ञान परंपरा के उत्कृष्ट आचार्य थे । आप प्रत्येक विषय के ज्ञाता थे। चाहे व्याकरण हो, साहित्य, ज्योतिष ,आयुर्वेद, मंत्रशास्त्र, न्याय, दर्शन एवं धर्म सभी विधाओं में निपुण थे। जब आप भस्मक व्याधि दूर करने के लिए काशी आये, तब काशी नरेश के समक्ष आपने जो अपना परिचय दिया, वह कोई अतिशयोक्ति नहीं थी, अपितु वह तथ्यपूर्ण कथन था।उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा–
आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम्। राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया- माज्ञासिद्धः,किमितिबहुना सिद्धसारस्वतोऽहम्।।
अर्थात् मैं आचार्य हूँ, कवि हूँ, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, मान्त्रिक हूँ, तान्त्रिक हूँ। हे राजन्!इस संपूर्ण पृथ्वी पर मैं आज्ञासिद्ध हूँ।अधिक क्या कहूँ ? मैं सिद्धसारस्वत हूँ।
महान् आचार्य उमास्वामी (प्रथम शताब्दी) द्वारा प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र नामक जैनधर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ को जैसे संस्कृत के आद्य जैन सूत्रग्रन्थ और इसके कर्ता के आद्य सूत्रकार होने का गौरव प्राप्त है, वैसे ही स्वामी समन्तभद्र को आद्य स्तुतिकार होने का गौरव प्राप्त है। क्योंकि आपने रत्नकरण्डक श्रावकाचार ग्रन्थ के सिवाय अन्य सभी उच्च दार्शनिक कृतियों को स्तुतियों के माध्यम से बड़ी ही प्रखरता के साथ प्रस्तुत किया है। इसीलिए संस्कृत के जैन स्तोत्र-काव्य का सूत्रपात आपके द्वारा ही हुआ। अतः आपको जैन परंपरा का आद्य स्तुतिकार होने का भी गौरव प्राप्त है.
‘भारतभूषण’उपाधि से अलंकृत–आगमकाल में जिन तत्वों का प्रतिपादन सूत्र रूप में होता था, आपने उन्हें दार्शनिक पद्धति से प्रस्तुत करते हुए स्याद्वाद, अनेकांतवाद, प्रमाण, नय, सप्तभंगी जैसे उत्कृष्ट जैन दार्शनिक अकाट्य सिद्धांतों के आधार से प्रतिपादन किया है. इसीलिए संस्कृत पांडवपुराण के कर्ता आचार्य शुभचंद्र तो आपकी कृतियों और अजेय व्यक्त्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि आपके विषय में ‘समंतभद्रो भद्रार्थो भातु भारतभूषण:’ कहकर आपको ‘भारतभूषण’ जैसी गौरवपूर्ण उपाधि तक से विभूषित किया है।
यह भी इतिहास में लिखी जाने योग्य पहली घटना है कि किसी मनीषी को प्रदान की जाने यह सर्वोच्च और सर्वप्राचीन उपाधि है। यह एक आश्चर्यकारी प्रसंग है कि किसी सत्रह सौ वर्ष प्राचीन आचार्य को बृहत्तर भारत की भारतभूषण जैसी सर्वोच्च उपाधि प्रदान की गई हो। वस्तुतः आपकी अगाध ज्ञानगरिमा तथा प्रभावक व्यक्तित्त्व और उत्कृष्ट कृतित्व के आधार से आपको प्रदान की गई यह उपाधि पूर्णतः सार्थक ही है।
वस्तुतः इनके महान् प्रभावक व्यक्तित्व का ज्ञान इससे भी होता है कि इनके द्वारा रचित गागर में सागर की तरह स्तुतिपरक सभी ग्रंथों पर इनके परवर्ती अनेक आचार्यों ने अनेक व्याख्या-ग्रन्थ लिखकर उनके चिन्तन के माध्यम से जैनदर्शन को अधिक विस्तार और विकास की दिशा प्रदान कर अपने जीवन को धन्य माना।इनके परवर्ती सभी आचार्यों ने भी आचार्य समन्तभद्र स्वामी के इस दाय को मात्र स्वीकार ही नहीं किया, अपितु आत्मसात करके उसे विस्तृत करने योगदान भी किया है।
जैनन्याय के प्रसिद्ध विद्वान् और हमारे गुरुवर्य डाॅ. दरबारी लाल जी कोठिया ने आचार्य विद्यानन्द प्रणीत आप्तपरीक्षा की प्रस्तावना में लिखा है कि- वे वीरशासन के प्रभावक, सम्प्रसारक और युगप्रवर्तक आचार्य हैं।
आचार्य अकलंकदेव ने इन्हें कलिकाल में स्याद्वाद रूपी पुण्योदधि के तीर्थ का उत्कृष्ट प्रभावक आचार्य (अष्टशती, पृ. 2)बतलाया है। आचार्य जिनसेन ने (हरिवंश पुराण 1/30) इनके वचनों को भगवान महावीर के वचनतुल्य प्रकट किया है। वेल्लूर ताल्लुकेका के शिलालेख (सं. 17) में इन्हें भगवान् महावीर के तीर्थ की हजार गुणी वृद्धि करने वाला कहा है।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भगवान् महावीर के शासन को सर्वोदयी शासन कहा है।वस्तुतः आप भगवान् महावीर के सर्वोदय तीर्थ के भी आप प्रमुख प्रवक्ता थे।
बीसवीं शताब्दी में महात्मा गाँधी जी एवं विनोबा भावे द्वारा प्रचलित सर्वोदय चिंतन का यह सर्व प्राचीन प्रथम उल्लेख माना जाता है ।वह इस प्रकार है- सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६७।।
अर्थात् हे जिनेन्द्रदेव! आपका यह सभी धर्मों से युक्त, गौण और मुख्य की कल्पना से सहित, सभी धर्मों से शून्य, परस्पर अपेक्षा से रहित अर्थात् परिपूर्ण, सभी आपदाओं का अन्त करने वाला और अन्तहीन आपका यह सर्वोदय तीर्थ ही सभी कल्याण करने वाला है।
जैनन्याय विषय के विकास में स्वामी समन्तभद्राचार्य का प्रमुख स्थान है। इनके परवर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने इनकी विविध रूपों में प्रशंसा लिखकर अपने को गौरवान्वित समझा। इतना ही नहीं, दक्षिण भारत में उपलब्ध अनेक शिलालेखों में इनकी यशोगाथा का उल्लेख मिलता है।
इस प्रकार दिगम्बर जैन परम्परा के अनेक आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य उमास्वामी के बाद स्वामी समन्तभद्र ही एकमात्र ऐसे गरिमा-मण्डित एवं प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की व्यापक प्रतिष्ठा की और जैनधर्म के दार्शनिक चिन्तन को तर्कपूर्ण शैली में प्रमाणशास्त्रीय पद्धति पर प्रतिष्ठापित कियाl आचार्य अकलंकदेव (7 वीं शती), आ.विद्यानन्द (8वीं शती) आ. माणिक्यनंदि (11वीं शती) और आ.प्रभाचन्द्र (11-12वीं शती) जैसे अनेक परवर्ती दार्शनिक आचार्यों ने जैन प्रमाणशास्त्र का जो विशाल प्रासाद निर्मित किया, उसकी बुनियाद(नींव)रखने का श्रेय आचार्य समन्तभद्र स्वामी को ही प्राप्त है। इसीलिए अनेक आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में आपका बहुमान के साथ काफी गुणगान किया है।
आचार्य अकलंकदेव ने आपको भव्य जीवों के लिए अद्वितीय नेत्र एवं ‘स्याद्वादमार्ग का पथिक’ विशेषण दिया है। आपने शास्त्रार्थों में बड़े-बड़े विद्वानों को परास्त किया था। इसलिए आचार्य जिनसेन ने इन्हें कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व आदि गुणों का धनी बताया।
अनेक शिलालेखों और ग्रंथकारों ने अपने ग्रंथों में आपके विभिन्न गुणों और विशेषताओं का उल्लेख कर आपकी उत्कृष्ट महिमा का और जिनशासन के प्रति आपके अनुपम योगदान और समर्पण का उल्लेख करते हुए आपके प्रति अगाध श्रद्धा व्यक्त की है। इसीलिए अनेक शास्त्रीय उल्लेखों में आपको भावी तीर्थंकर तक बतलाया गया है।
तत्कालीन परिस्थितियाँ और दार्शनिक प्रस्थापनायें-
आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि इनके समक्ष अनेक दार्शनिकों और उनके विभिन्न मतों की बाढ़ सी आई हुई थी। वस्तुतः विक्रम की दूसरी-तीसरी शती अपने देश में दार्शनिक क्रान्ति का युग रहा है।अन्यान्य भारतीय दार्शनिकों के और आपके द्वारा रचित ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन से ज्ञात होता है कि आपके युग में अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनि जैसे दिग्गज दार्शनिक और इनके अपने- अपने मतों की प्रतिद्वन्दिता चरम पर भी। परस्पर शास्त्रार्थों के माध्यम से परमत खण्डन और स्वमत मण्डन का बाहुल्य था।
उस समय सम्पूर्ण देश में व्यापक इन सब विविध मतों के बीच आचार्य समन्तभद्र ने अपनी अद्भुत् मेधा और तार्किक ढंग से इन विभिन्न एकान्तवादी मतों का सूक्ष्मता से परीक्षण करके प्रबल युक्तियों से उनका खण्डन करके जैन दार्शनिक सिद्धान्तों की शाश्वतता स्थापित की।और अनेकान्तवाद और स्याद्वाद आदि समन्वयवादी सिद्धांतों की जो ध्वजा लहराई, उसका सम्पूर्ण दार्शनिक जगत् में व्यापक प्रभाव हुआ।यही सब तो आपके अपराजित व्यक्तित्व का परिचायक है।
यद्यपि इनसे पूर्व के जैन आगमों में प्रमाणशास्त्र के बीज उपलब्ध होते हैं, किन्तु वास्तविक दार्शनिक मन्तव्यों का प्रमाणशास्त्रीय विकास एवं तार्किक विवेचन मुख्यतः आचार्य समन्तभद्र स्वामी से प्रारम्भ होता है।
वस्तुतः इनके समक्ष जहाँ एक ओर अपने पूर्वाचार्यों की परम्परा के संरक्षण का दायित्व था, वहीं दूसरी ओर प्रमाणशास्त्र के रूप में विकसित हो रही अन्य दार्शनिक परम्परा भी थी,जिसके साथ उनका सामजंस्य बैठाना था। आचार्य समन्तभद्र ने अपने इस दोहरे दायित्व का निर्वाह बड़ी ही कुशलता के साथ किया।
आचार्य समन्तभद्र स्वामी कृतित्व-
आपकी उपलब्ध कृतियों में से रत्नकरण्डक-श्रावकाचार को छोड़कर शेष चारों स्तुतिपरक गहन दार्शनिक कृतियाँ हैं, जिनमें आपने अपने इष्टदेवों की स्तुति के बहाने एकांतवादि दार्शनिकों के मतों का समीक्षापूर्वक खंडन करके अनेकांतवाद की दृढ़ता के साथ स्थापना की है । क्योंकि आपमें सातिशय श्रद्धा गुण के साथ ही गुणग्राहिता अप्रतिम प्रतिभा का गुण भी भरपूर विद्यमान था।
उपलब्ध कृतियाँ– आपके द्वारा लिखित उपलब्ध कृतियों में–१.युक्त्यनुशासन-अपरनाम वीरजिनस्तोत्र, २. स्वयम्भूस्तोत्र अपरनाम चतुर्विंशतिजिन स्तोत्र, ३.जिनशतक अपरनाम स्तुतिविद्या ४.रत्नकरण्डक-श्रावकाचार और ५.देवागम अपरनाम आप्तमीमांसा–ये वर्तमान में प्रमुख उपलब्ध कृतियाँ हैं।
अनुपलब्ध कृतियाँ– आपके द्वारा सृजित किन्तु अनुपलब्ध कृतियों में जीवसिद्धि और गन्धहस्तिमहाभाष्य नामक रचनाओं का उल्लेख क्रमशः आचार्य जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में तथा जैन नाटककार हस्तिमल्ल ने अपने ‘‘विक्रान्तकौरवम्’’ नामक नाटक में किया है। कन्नड़़ भाषा के महाकवि महाराजा चामुण्डराय (वि. सं. 1035) ने अपने ग्रंथ ‘त्रिषष्टि-लक्षण महापुराण’ में भी आपके द्वारा रचित ‘गन्धहस्ति महाभाष्य’ का उल्लेख किया है। इनके साथ ही आपके द्वारा रचित तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृतटीका--इन अनुपलब्ध ग्रंथों के भी परवर्ती शास्त्रों में संदर्भ सहित उल्लेख प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र का श्रमण परम्परा विशेषकर जैन प्रमाणशास्त्र के विकास में अनुपम योगदान को देखते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. एस. एस. आर. आयंगर ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘स्टेडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म’’ में ठीक ही लिखा है कि - ‘‘दक्षिण भारत में आचार्य समन्तभद्र का उदय न केवल जैनों के इतिहास में ही अपितु संस्कृत साहित्य एवं संस्कृति के इतिहास में भी विशेष युग को रेखांकित करता है।
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